जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मै नाहि ।
सब अँधियारा मिट गया दीपक देख्या माँहि ॥ — कबीर
योगेश्वर श्रीकृष्ण अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। उनका चंचल बचपन हो या श्रेष्ठ आदर्श जीवन, उनके चमत्कार हों या श्रीमद्भगवदगीता में उनके द्वारा अर्जुन को दिया गया धर्म और कर्म का उपदेश। श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व का प्रतिबिंब कण-कण में विद्यमान है।श्रीकृष्ण निष्काम कर्मयोगी, एक आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्ज महान पुरुष थे। श्रीकृष्ण लगभग 5,200 वर्ष से कुछ पूर्व (द्वापरयुग) इस भारत भूमि में जन्मे थे। हिंदू धर्म के अनुसार त्रिदेवों में से एक भगवान विष्णु आठवें अवतार के रूप में श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ। श्रीकृष्ण को द्वापरयुग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष, युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। श्रीकृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तुत रूप से लिखा गया है।
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर्मर्दनम्।
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।।
कृष्ण हर रूप में अद्भुद हैं, ब्रज वृंदावन के
कान्हा हो, मुरलीमनोहर, माखन चोर, गोपाल राधेकृष्ण, नन्द नंदन, यशोदा के लाल, रास रचैया, गोपी कृष्ण हो या
देवकी नंदन, द्रौपदी के सखा, पांडवों के तारणहार वासुदेव, वे द्वारका के
द्वारकाधीश, वे राधा मीरा गोपियों का विरह हैं और उनकी आराधना भी, वे सूरदास की
दृष्टि हैं तो रसखान का अमृत भी, किंतु अपने हर रूप में पूर्ण और अनंत।
ॐ कृष्ण कृष्ण महाकृष्ण सर्वज्ञ त्वं
प्रसीद मे। रमारमण विद्येश विद्यामाशु प्रयच्छ मे॥
भाद्रपद: भाद्रपद में गणेशजी और श्रीकृष्ण की पूजा की
जाती है। इसी माह में गणेश उत्सव मनाया जाता है और कृष्ण पक्ष की अष्टमी को भगवान
कृष्ण का जन्म हुआ था इसीलिए जन्माष्टमी मनाई जाती है। इसी माह में श्रीराधा की
पूजा भी होती है क्योंकि इसी माह में उन्होंने भी जन्म लिया था।
श्रीकृष्ण का परिवार
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कृष्ण का जन्म मथुरा के कारागार में हुआ था।
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वे माता देवकी और पिता वसुदेव की 8वीं संतान थे।
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श्रीमदभागवत् के वर्णन अनुसार द्वापरयुग में भोजवंशी राजा उग्रसेन मथुरा
में राज करते थे।
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उग्रसेन का एक आततायी पुत्र कंस था और देवकी राजा उग्रसेन के भाई देवक की
कन्या थी।
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देवकी का विवाह वसुदेव के साथ हुआ था जो कृष्ण के पिता थे।
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वसुदेव के पिता राजा शूरसेन वृष्णि वंश और यादव कुल के थे।
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शूरसेन सुधर्मा सभा के एक वरिष्ठ सदस्य थी, उनकी एक बेटी प्रीथा और एक बेटा वसुदेव
थे।
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प्रीता को भोज राजवंश के महाराजा कुन्तिभोज ने गोद लिया था, जिससे उनका नाम कुन्ती हुआ।
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कुन्ती का विवाह हस्तिनापुर के राजा पांडु से हुआ।
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वसुदेव की बहन होने के नाते पांडवों की माता कुन्ती श्रीकृष्ण की बुआ लगीं।
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वसुदेव और नन्द (कृष्ण के पालक पिता) दोनों ही चचेरे भाई थे।
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नन्द हरिवन्श व पुराणो के अनुसार “पावन ग्वाल” के रूप मे विख्यात गोपालक
जाति के मुखिया थे।
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वसुदेव ने अपने नवजात शिशु कृष्ण को लालन पालन हेतु नन्द को सौंप दिया था।
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नन्द व उनकी पत्नी यसोदा ने कृष्ण व बलराम दोनों को पाला पोसा।
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कृष्ण के बड़े भाई थे उनकी माता रोहिणी थी, रोहिणी वसुदेव की पत्नी थीं।
कृष्ण की
बहनें
1. एकांगा (यह यशोदा की पुत्री थीं)। उन्होंने एकांत
ग्रहण कर लिया था। इन्हें यादवों की कुल देवी भी माना गया है। कुछ लोग इन्हें
योगमाया भी कहते हैं।
2. सुभद्रा : वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी से बलराम
और सुभद्र का जन्म हुआ। वेबदुनिया के शोधानुसार वसुदेव देवकी के साथ जिस समय
कारागृह में बंदी थे, उस समय ये
नंद के यहां रहती थीं। सुभद्रा का विवाह कृष्ण ने अपनी बुआ कुंती के पुत्र अर्जुन
से किया था। जबकि बलराम दुर्योधन से करना चाहते थे।
3. द्रौपदी : पांडवों की पत्नी द्रौपदी हालांकि कृष्ण
की बहन नहीं थी, लेकिन
श्रीकृष्ण इसे अपनी मानस भगिनी मानते थे।
4. महामाया : देवकी के गर्भ से सती ने महामाया के रूप
में इनके घर जन्म लिया, जो कंस के
पटकने पर हाथ से छूट गई थी। कहते हैं,विन्ध्याचल में इसी देवी का निवास है। यह भी कृष्ण की बहन थीं।
कृष्ण के
गुरु- गुरु
संदीपनि ने कृष्ण को वेद शास्त्रों सहित 14 विद्या और 64 कलाओं का ज्ञान दिया था। गुरु घोरंगिरस
ने सांगोपांग ब्रह्म ज्ञान की शिक्षा दी थी।
कृष्ण के
नाम- नंदलाल, गोपाल, बांके बिहारी, कन्हैया, केशव, श्याम, रणछोड़दास, द्वारिकाधीश और वासुदेव। बाकी बाद में
भक्तों ने रखे जैसे मुरलीधर, माधव, गिरधारी, घनश्याम, माखनचोर, मुरारी, मनोहर, हरि, रासबिहारी आदि।
श्रीकृष्ण
की आठ रानियों और संतानों के नाम- महाभारत युद्ध के पश्चात्य वे 35 वर्षों तक जिंदा रहे और द्वारिका में
अपनी आठ पत्नियों के साथ सुख पूर्वक जीवन व्यतीत किया। यहां प्रस्तुत है उनकी
प्रत्येक पत्नी से उत्पन्न हुए 80 संतानों के नाम। हालांकि संतानें तो उनकी और भी थीं।
1.रुक्मिणी: प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारू, चरुगुप्त, भद्रचारू, चारुचंद्र, विचारू और चारू।
2.सत्यभामा: भानु, सुभानु, स्वरभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, वृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु।
3.जाम्बवंती: साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, शतजित, सहस्त्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड़ और क्रतु।
4.सत्या: वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु और कुन्ति।
5.कालिंदी: श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास और सोमक।
6.लक्ष्मणा: प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजित।
7.मित्रविन्दा: वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महांस, पावन, वह्नि और क्षुधि।
8.भद्रा: संग्रामजित, वृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक।
16 कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण
जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द ।।
ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, ॐ माधवाय नमः।
श्रृंगार कला – भगवान श्रीकृष्ण को श्रृंगार की बारिकियों का इतना ज्यादा ज्ञान था कि उसके श्रृंगार रूप को देखकर गोकुल की कन्याएं (गोपिया) उनके मनमोहक रूप को निहारती रहती थी। उनके गले में दुपट्टा, कमर पर तगड़ी, पीताम्बर अंग वस्त्र, सिर पर छोटा मुकुट तथा उसपर मोर पंख श्री की सुन्दरता में चार चांद लगाता था
वादन कला – भगवान को वादन के सभी स्वरों का
पूर्ण ज्ञान था, जिसके
परिणास्वरूप वे अपनी बांसूरी से बड़े बड़ों को अपने अनुचर बना लेते थे।
नृत्य कला – श्रीकृष्ण को नृत्य का पूर्ण
ज्ञान था, इसी लिए
गोकुल की देवियां उनके नृत्य की प्रशंसा करते-करते श्रीकृष्ण का नृत्य देखने की हठ
करती थी।
गायन कला – श्रीकृष्ण एक अच्छे गायक भी थे।
वेद के मंत्रों का गायन कर उन्होंने अर्जुन को मोहपाश के मुक्त कर दिया था।
वाकमाधूर्य कला – श्रीकृष्ण की वाणी में विलक्षण
मधुरता व्याप्त थी। वे जिस किसी से भी वार्ता करते थे, वह हमेशा के लिए उनका हो जाता था।
वाकचातुर्य कला – उनकी वाणी में चतुरता भी थी। वे
बडे़ सहज भाव से अपनी बात को मनवा लेते थे और सामने वाले को अपना विरोद्घि भी नही
बनने देते थे। महाभारत में ऐसे अनेक प्रकरण सामने आए हैं।
वक्तृत्व कला – भगवान एक महान वक्ता थे।
बड़े-बड़े धूरंधरों को उन्होंने अपने प्रभावशाली वक्तव्यों से धराशाही कर उनको
उनके ही बनाए जाल में फांस लिया था। कालयवन उसका एक अच्छा उदाहरण है।
लेखन कला – श्रीकृष्ण ने मात्र एक घंटे के
सुक्ष्मकाल में गीता की रचना कर एक ऐतिहासिक कार्य किया है। उनका मुकाबला आज तक या
इससे पहले कोई नही कर सका। अतः भगवान एक उत्तम कोटी के लेखक भी थे।
वास्तुकला – भगवान श्रीकृष्ण को वास्तुकला का
भी अकाटय ज्ञान था। पांडवों के लिए इन्द्रप्रस्थ और स्वयं अपने लिए राजधानी
द्वारका का निर्माण वास्तुकला के बेजोड़ नमूने थे।
पाककला – भगवान श्रीकृष्ण पाक शास्त्र के
भी महान पंडित थे। सम्राट युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ के दौरान खाने-पीने का पूरा
सामान उनकी देख-रेख में ही तैयार किया गया था।
नेतृत्व कला – कृष्ण में नेतृत्व करने की क्षमता
बेजोड थी। वे जहां भी गए नेतृत्व उनके पीछे-पीछे हो जाता था। सभी युद्घों से लेकर
आम सभाओं में हमेशा सभी ने उन्हीं के नेतृत्व को स्वीकार किया था।
युद्घ कला – श्रीकृष्ण की अधिकतर आयु युद्घों
में ही व्यतीत हुई थी परन्तु हमेशा उन्होंने सभी में विजय प्राप्त की। वे युद्घ की
सभी विधाओं का सम्पूर्ण ज्ञान रखते थे।
शस्त्रास्त्र कला – योगेश्वर श्रीकृष्ण को युद्घ में
प्रयोग होने वाले सभी व्यूहों की रचना, उन्हें भंग करने की कला तथा
आग्नेयास्त्र, वरूणास्त्र
तथा ब्रह्मास्त्र सहित सभी अस्त्र शस्त्रों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त था।
अध्यापन कला – भगवान श्रीकृष्ण एक सफल अध्यापक
भी थे। युद्घ क्षेत्र में जिस प्रकार उन्होंने अर्जुन को निष्कामकर्म योग, सांख्य योग, विभूति योग, भक्ति योग, मोक्ष सन्यास योग तथा विश्वरूप
दर्शन योग का पाठ पढाया, वह हमेशा
अनुक्रणीय रहेगा।
वैद्यक कला – श्रीकृष्ण आयूर्वेद के भी
सम्पूर्ण ज्ञाता थे। कंस की फूल चुनने वाली दासी कुबड़ी के शरीर को सीधा करना तथा
महाभारत युद्घ में अश्वथामा के प्रहार से मृतप्रायः हुए परीक्षित को जीवन दान देना
इसके अकाट्य उदाहरण है।
पूर्वबोध कला – भगवान ने तप से अपनी आत्मा को
इतना पवित्र और उर्द्घव गति को प्राप्त करवा लिया था कि उन्हें किसी भी घटना का
पहले से ही अनुमान हो जाता था।
भगवान राम 12 कलाओं से तो
भगवान श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं से युक्त हैं। यह चेतना का
सर्वोच्च स्तर होता है। इन्हीं 16 कलाओं से युक्त और उसके पार है शिव।
इसीलिए शिव को भी हिन्दू धर्म में सर्वोच्च सत्ता माना गया है।
श्रीकृष्ण की 5 महत्वपूर्ण शिक्षाएं
“ऊं श्रीं नमः
श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय स्वाहा”
संपूर्ण
पुरुष माने जाने वाले भगवान श्री कृष्ण ने जीवन को देखने का एक नया नजरिया अपने
भक्तों को दिया। जानिए श्री कृष्ण की उन 5 शिक्षाओं को जिन्हें अगर आप आत्मसात कर
लें तो परमात्मा के निकट पहुंच सकेंगे…
1. निष्काम स्वधर्माचरणम् : बिना फल की इच्छा किए या उस कार्य की
प्रकृति पर सोच-विचार किए अपना कर्म करते जाओ।
2. अद्वैत भावना सहित भक्ति : परमात्मा के प्रति अद्वैत भावना से स्वयं
को उस परम शक्ति के हाथों समर्पित कर दो। उसी की भक्ति करो।
3. ब्रह्म भावना द्वारा सम दृष्टि : सारे संसार को समान दृष्टि से देखो। सदैव
ध्यान रखो कि संसार में एक सर्वव्यापी ब्रह्म है जो सर्वोच्च शक्ति है।
4. इंद्रीय निग्रहम् और योग साधना : इंद्रियों को उनके साथान पर केंद्रित
करो। सभी प्रकार की माया से स्वयं को मुक्त करने और अपनी इंद्रियों का विकास करने
का निरंतर प्रयास करते रहो।
5. शरणगति: जिन चीजों को तुम अपना कहते हो उसे उस
दिव्य शक्ति को समर्पित कर दो और उस समर्पण को सार्थक बनाओ।
यह 12 उपदेश देने में सफल रहे श्रीकृष्ण
भजे व्रजैक मण्डनम्, समस्त पाप
खण्डनम्,
स्वभक्त चित्त रञ्जनम्, सदैव नन्द नन्दनम्,
सुपिन्छ गुच्छ मस्तकम् , सुनाद वेणु हस्तकम् ,
अनङ्ग रङ्ग सागरम्, नमामि कृष्ण नागरम् ॥
1. गुस्से पर काबू – ‘क्रोध से भ्रम पैदा होता है. भ्रम से
बुद्धि व्यग्र होती है. जब बुद्धि व्यग्र होती है तब तर्क नष्ट हो जाता है. जब
तर्क नष्ट होता है तब व्यक्ति का पतन हो जाता है.’
2. देखने का नजरिया – ‘जो ज्ञानी व्यक्ति ज्ञान और कर्म को एक
रूप में देखता है, उसी का
नजरिया सही है.’
3. मन पर नियंत्रण – ‘जो मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए
वह शत्रु के समान कार्य करता है.’
4. खुद का आकलन – ‘आत्म-ज्ञान की तलवार से काटकर अपने ह्रदय
से अज्ञान के संदेह को अलग कर दो. अनुशासित रहो, उठो.’
5. खुद का निर्माण – ‘मनुष्य अपने विश्वास से निर्मित होता है.
जैसा वो विश्वास करता है वैसा वो बन जाता है.’
6. हर काम का फल मिलता है – ‘इस जीवन में ना कुछ खोता है ना व्यर्थ
होता है.’
7. प्रैक्टिस जरूरी – ‘मन अशांत है और उसे नियंत्रित करना कठिन
है, लेकिन
अभ्यास से इसे वश में किया जा सकता है.’
8. विश्वास के साथ विचार – ‘व्यक्ति जो चाहे बन सकता है, यदि वह विश्वास के साथ इच्छित वस्तु पर
लगातार चिंतन करे.’
9. दूर करें तनाव – ‘अप्राकृतिक कर्म बहुत तनाव पैदा करता
है.’
10.
अपना काम पहले करें – ‘किसी और का काम पूर्णता से करने से कहीं अच्छा है कि अपना काम करें, भले ही उसे अपूर्णता से करना पड़े.’
11.
इस तरह करें काम – ‘जो कार्य में निष्क्रियता और निष्क्रियता में कार्य देखता है वह एक
बुद्धिमान व्यक्ति है.’
12.
काम में ढूंढें खुशी – ‘जब वे अपने कार्य में आनंद खोज लेते हैं
तब वे पूर्णता प्राप्त करते हैं.’
हे दीनबन्धो
दिनेश सर्वेश्वर नमोस्तुते गोपेश गोपिका
कांत राधा कांता नमोस्तुते
नमस्ते परमेशानि रासमण्डलवासिनी। रासेश्वरि
नमस्तेऽस्तु कृष्ण प्राणाधिकप्रिये।।
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