Globalwits

Thursday, 9 April 2020

कबीर के दोहों में ज्ञान का महासागर


कबीर के दोहों में ज्ञान का महासागर

संत कबीर ने जीवन में सुख और सफलता पाने के कई सूत्र अपने दोहों में बताए हैं। कबीर के दोहे काफी प्रसिद्ध है, इनमें छिपे सूत्रों को अपनाने से कोई भी व्यक्ति सफल और सुखी हो सकता है। संत कबीरदास के सभी दोहे मानव सोच पर व्यंग्य करते प्रतीत होते हैं| एक महान विचारक और समाज सुधारक भी थे। कबीर दास जी ने अपने सकारात्मक विचारों से करीब 800 दोहों में जीवन के कई पक्षों पर अपने अनुभवों का जीवंत वर्णन किया है।कबीर के द्वारा कही गयी उन दोहों को जो आज भी हमारे समाज को सच का आईना दिखाते है दोहे किसी व्यक्ति को अंधरे में मशाल दिखाने का काम करते हैं. बात जब दोहे की हो, तो कबीरदासजी का नाम स्वत: ही जु़बान पर आ जाता है. कबीर की दृढ़ मान्यता थी कि कर्मों के अनुसार ही गति मिलती है स्थान विशेष के कारण नहीं। अपनी इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए अंत समय में वह मगहर चले गए ; क्योंकि लोगों की मान्यता थी कि काशी में मरने पर स्वर्ग और मगहर में मरने पर नरक मिलता है। मगहर में उन्होंने अंतिम सांस ली। आज भी वहां पर मजार व समाधी स्थित है।मानवीय प्रेम कबीर की भक्ति की विलक्षणता है।संत कबीर की दिव्य वाणी का प्रकाश आज भी हमें समस्याओं के अंधेरे से निकाल कर समाधान की ओर ले जाता है।



दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय
जो सुख में सुमिरन करे, दुख काहे को होय
हम सभी परेशानियों में फंसने के बाद ही ईश्वर को याद करते हैं. सुख में कोई याद नहीं करता. जो यदि सुख में याद किया जाएगा तो फिर परेशानी क्यों आएगी.
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय
जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय
जब मैं पूरी दुनिया में खराब और बुरे लोगों को देखने निकला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला. और जो मैंने खुद के भीतर खोजने की कोशिश की तो मुझसे बुरा कोई नहीं मिला.
साच बराबर तप नही, झूठ बराबर पाप,
जाके हृदय में साच है ताके हृदय हरी आप,
 इस संसार में सत्य के राह पर चलने के बराबर कोई तपस्या नही है और झूठ बोलना जैसा कोई पाप ही नही है और जो सत्य की राह चलता है उसके हृदय में ईश्वर स्वय निवास करते है
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर
इस दोहे के माध्यम से कबीर कहना चाहते हैं कि सिर्फ बड़ा होने से कुछ नहीं होता. बड़ा होने के लिए विनम्रता जरूरी गुण है. जिस प्रकार खजूर का पेड़ इतना ऊंचा होने के बावजूद न पंथी को छाया दे सकता है और न ही उसके फल ही आसानी से तोड़े जा सकते हैं.
कबीर कूता राम का, मुटिया मेरा नाऊ |
गले राम की जेवड़ी, जित खींचे तित जाऊं||
कबीर राम के लिए काम करता है जैसे कुत्ता अपने मालिक के लिए काम करता है। राम का नाम मोती है जो कबीर के पास है। उसने राम की जंजीर को अपनी गर्दन से बांधा है और वह वहाँ जाता है जहाँ राम उसे ले जाता है।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में परलय होएगी, बहुरी करोगे कब
कल का काम आज ही खत्म करें और आज का काम अभी ही खत्म करें. ऐसा न हो कि प्रलय आ जाए और सब-कुछ खत्म हो जाए और तुम कुछ न कर पाओ.ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोए
अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होए
हमेशा ऐसी बोली और भाषा बोलिए कि उससे आपका अहम न बोले. आप खुद भी सुकून से रहें और दूसरे भी सुखी रहें.
चिंता से चतुराई घटे, दु:ख से घटे शरीर।
पाप किये लक्ष्‍मी घटे, कह गये दास कबीर।।
व्यर्थ की चिंता एक ऐसी गुप्त अग्नि है, जो हमें अंदर ही अंदर जलाते रहती है, जो हमें चलती फिरती लाश बना देती है ,चिंता को चिता समान माना गया है क्योकि चिंताए हमारी ख़ुशी को गायब कर देती है जो अंदर की बात हमारे चेहरे और चलन से अभिव्यक्त होती है.
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहु से दोस्‍ती, न काहू से बैर।।
इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो
सुख में सुमरिन ना किया, दु:ख में किया याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥
अच्छे समय में भगवान् को भूल गए, और संकट के समय ही भगवान् को याद किया। ऐसे भक्त कि प्रार्थना कौन सुनेगा ?
ऊँचे पानी ना टिके, नीचे ही ठहराय।
नीचा हो सो भारी पी, ऊँचा प्‍यासा जाय।
मनुष्य को सदैव झुक कर ही कुछ पाने की इच्छा करनी चाहिए किसी से ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी झुकना ही पड़ता है क्योंकि अकड़ कर ऊँचा होने का दिखावा करने वालों को कभी भी कुछ प्राप्त नही होता
पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहाड़।
घर की चाकी कोई ना पूजे, जाको पीस खाए संसार।।
इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि यदि पत्थर पूजने से ईश्वर मिले तो मैं पहाड़ की पूजा करूँ,इससे तो अपने घर में चकरी ही अच्छी है जिससे सारा संसार आटा पीस कर खाता है।
हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥
कबीर दास जी के मतानुसार हीरा वहां न खोलिये जहां दुष्ट लोगों का वास हो। वहां तो अपनी गांठ अधिक कस कर बांध लो और वह स्थान ही त्याग दो।
सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥
सोये हुऐ साधु को जगाईऐ उस में रूची लेकर ज्ञान प्राप्त कर उस परमेश्वर नाम का जप करे|  साकितं सिहं और साँप ये भयंकर प्राणी तो सोते हुऐ अच्छे लगते है साधु नही |
धीरे-धीरे रे मन, धीरे सब-कुछ होए
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होए
दुनिया में सारी चीजें अपनी रफ्तार से घटती हैं, हड़बड़ाहट से कुछ नहीं होता. माली पूरे साल पौधे को सींचता है और समय आने पर ही फल फलते हैं.
साईं इतनी दीजिए, जा में कुटुंब समाए
मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए
यहां कबीर ईश्वर से सिर्फ उतना ही मांगते हैं जिसमें पूरा परिवार का खर्च चल जाए. न कम और न ज्यादा. कि वे भी भूखे न रहें और दरवाजे पर आया कोई साधू-संत भी भूखा न लौटे.
चतुराई हरि ना मिलय, येह बातों की बात
निसप्रेही निर्धार का, गाहक दीनानाथ।
चतुराई से प्रभु की प्राप्ति संभव नहीं है। यह एक मूल बात है।
एक निर्मोही एवं निराधार को प्रभु दीनानाथ अपना बना लेते है।
माला बनाये काठ की, बिच मे डारा सूत
माला बिचारी क्या करै, फेरनहार कपूत।
लकड़ी के माला के बीच में धागा डाला गया। परंतु वह माला बेचारा क्या करें।
यदि माला फेरने वाला ही बुरे चरित्र का कपूत हो। प्रभु के स्मरण के लिये उत्तम चरित्र का पात्र आवस्यक है।
जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग
तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग
जिस तरह तिल में तेल होने और चकमक में आग होने के बाद दिखलाई नहीं पड़ता. ठीक उसी तरह ईश्वर को खुद के भीतर खोजने की जरूरत है. बाहर खोजने पर सिर्फ निराशा हाथ लगेगी.
पोथि पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोए
ढाई आखर प्रेम के, पढ़ा सो पंडित होए
कबीर कहते हैं कि किताबें पढ़ कर दुनिया में कोई भी ज्ञानी नहीं बना है. बल्कि जो प्रेम को जान गया है वही दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञानी है.
चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए
वैद बिचारा क्या करे, कहां तक दवा लगाए
चिंता रूपी चोर सबसे खतरनाक होता है, जो कलेजे में दर्द उठाता है. इस दर्द की दवा किसी भी चिकित्सक के पास नहीं होती.
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर
आशा, तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर
इच्छाएं कभी नहीं मरतीं और दिल कभी नहीं भरता, सिर्फ शरीर का ही अंत होता है. उम्मीद और किसी चीज की चाहत हमेशा जीवित रहते हैं.
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह ।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह ॥
कबीरदास जी कहते हैं कि जब से पाने चाह और चिंता मिट गयी है, तब से मन बेपरवाह हो गया है| इस संसार में जिसे कुछ नहीं चाहिए बस वही सबसे बड़ा शहंशाह है|
निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें |
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ||
कबीर दास जी कहते हैं कि निंदक(हमेशा दूसरों की बुराइयां करने वाले) लोगों को हमेशा अपने पास रखना चाहिए, क्यूंकि ऐसे लोग अगर आपके पास रहेंगे तो आपकी बुराइयाँ आपको बताते रहेंगे और आप आसानी से अपनी गलतियां सुधार सकते हैं। इसीलिए कबीर जी ने कहा है कि निंदक लोग इंसान का स्वभाव शीतल बना देते हैं।
माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे |
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ||
जब कुम्हार बर्तन बनाने के लिए मिटटी को रौंद रहा था, तो मिटटी कुम्हार से कहती है – तू मुझे रौंद रहा है, एक दिन ऐसा आएगा जब तू इसी मिटटी में विलीन हो जायेगा और मैं तुझे रौंदूंगी
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात |
देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात ||
कबीर दास जी कहते हैं कि इंसान की इच्छाएं एक पानी के बुलबुले के समान हैं जो पल भर में बनती हैं और पल भर में खत्म। जिस दिन आपको सच्चे गुरु के दर्शन होंगे उस दिन ये सब मोह माया और सारा अंधकार छिप जायेगा
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये |
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ||
चलती चक्की को देखकर कबीर दास जी के आँसू निकल आते हैं और वो कहते हैं कि चक्की के 2 पाटों के बीच में कुछ साबुत नहीं बचता
ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग |
तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ||
कबीर दास जी कहते हैं जैसे तिल के अंदर तेल होता है, और आग के अंदर रौशनी होती है ठीक वैसे ही हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही विद्धमान है, अगर ढूंढ सको तो ढूढ लो।
जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप |
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ||
कबीर दास जी कहते हैं कि जहाँ दया है वहीँ धर्म है और जहाँ लोभ है वहां पाप है, और जहाँ क्रोध है वहां सर्वनाश है और जहाँ क्षमा है वहाँ ईश्वर का वास होता है
जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश |
जो है जा को भावना सो ताहि के पास ||
कमल जल में खिलता है और चन्द्रमा आकाश में रहता है। लेकिन चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जब जल में चमकता है तो कबीर दास जी कहते हैं कि कमल और चन्द्रमा में इतनी दूरी होने के बावजूद भी दोनों कितने पास है। जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ऐसा लगता है जैसे चन्द्रमा खुद कमल के पास आ गया हो। वैसे ही जब कोई इंसान ईश्वर से प्रेम करता है वो ईश्वर स्वयं चलकर उसके पास आते हैं।
जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान |
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान ||
साधु से उसकी जाति मत पूछो बल्कि उनसे ज्ञान की बातें करिये, उनसे ज्ञान लीजिए। मोल करना है तो तलवार का करो म्यान को पड़ी रहने दो।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए |
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए ||
अगर आपका मन शीतल है तो दुनियां में कोई आपका दुश्मन नहीं बन सकता
ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग |
प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ||
कबीर दास जी कहते हैं कि अब तक जो समय गुजारा है वो व्यर्थ गया, ना कभी सज्जनों की संगति की और ना ही कोई अच्छा काम किया। प्रेम और भक्ति के बिना इंसान पशु के समान है और भक्ति करने वाला इंसान के ह्रदय में भगवान का वास होता है।
तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार |
सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ||
तीर्थ करने से एक पुण्य मिलता है, लेकिन संतो की संगति से 4 पुण्य मिलते हैं। और सच्चे गुरु के पा लेने से जीवन में अनेक पुण्य मिल जाते हैं
तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय |
सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ||
कबीर दास जी कहते हैं कि लोग रोजाना अपने शरीर को साफ़ करते हैं लेकिन मन को कोई साफ़ नहीं करता। जो इंसान अपने मन को भी साफ़ करता है वही सच्चा इंसान कहलाने लायक है।
जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही |
ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ||
कबीर दास जी कहते हैं कि जिस घर में साधु और सत्य की पूजा नहीं होती, उस घर में पाप बसता है। ऐसा घर तो मरघट के समान है जहाँ दिन में ही भूत प्रेत बसते हैं
पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत |
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ||
कबीर दास जी कहते हैं कि बीता समय निकल गया, आपने ना ही कोई परोपकार किया और नाही ईश्वर का ध्यान किया। अब पछताने से क्या होता है, जब चिड़िया चुग गयी खेत।
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही |
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ||
कबीर दास जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकार(मैं) था, तब मेरे ह्रदय में हरी(ईश्वर) का वास नहीं था। और अब मेरे ह्रदय में हरी(ईश्वर) का वास है तो मैं(अहंकार) नहीं है। जब से मैंने गुरु रूपी दीपक को पाया है तब से मेरे अंदर का अंधकार खत्म हो गया है
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए |
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ||
कबीर दास जी कहते हैं कि आप कितना भी नहा धो लीजिए, लेकिन अगर मन साफ़ नहीं हुआ तो उसे नहाने का क्या फायदा, जैसे मछली हमेशा पानी में रहती है लेकिन फिर भी वो साफ़ नहीं होती, मछली में तेज बदबू आती है।
प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय |
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ||
जिसको ईश्वर प्रेम और भक्ति का प्रेम पाना है उसे अपना शीश(काम, क्रोध, भय, इच्छा) को त्यागना होगा। लालची इंसान अपना शीश(काम, क्रोध, भय, इच्छा) तो त्याग नहीं सकता लेकिन प्रेम पाने की उम्मीद रखता है
कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर |
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर ||
कबीर दास जी कहते हैं कि जो इंसान दूसरे की पीड़ा और दुःख को समझता है वही सज्जन पुरुष है और जो दूसरे की पीड़ा ही ना समझ सके ऐसे इंसान होने से क्या फायदा।
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
कबीर दास जी कहते हैं कि वे लोग अंधे और मूर्ख हैं जो गुरु की महिमा को नहीं समझ पाते। अगर ईश्वर आपसे रूठ गया तो गुरु का सहारा है लेकिन अगर गुरु आपसे रूठ गया तो दुनियां में कहीं आपका सहारा नहीं है।
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी |
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ||
कबीर दास जी कहते हैं कि तू क्यों हमेशा सोया रहता है, जाग कर ईश्वर की भक्ति कर, नहीं तो एक दिन तू लम्बे पैर पसार कर हमेशा के लिए सो जायेगा
शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान |
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ||
शांत और शीलता सबसे बड़ा गुण है और ये दुनिया के सभी रत्नों से महंगा रत्न है। जिसके पास शीलता है उसके पास मानों तीनों लोकों की संपत्ति है।
माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए |
हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय ||
कबीर दास जी कहते हैं कि मक्खी पहले तो गुड़ से लिपटी रहती है। अपने सारे पंख और मुंह गुड़ से चिपका लेती है लेकिन जब उड़ने प्रयास करती है तो उड़ नहीं पाती तब उसे अफ़सोस होता है। ठीक वैसे ही इंसान भी सांसारिक सुखों में लिपटा रहता है और अंत समय में अफ़सोस होता है।
आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर |
इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर ||
कबीर दास जी कहते हैं कि जो इस दुनियां में आया है उसे एक दिन जरूर जाना है। चाहे राजा हो या फ़क़ीर, अंत समय यमदूत सबको एक ही जंजीर में बांध कर ले जायेंगे
लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट |
अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट ||
कबीर दास जी कहते हैं कि ये संसार ज्ञान से भरा पड़ा है, हर जगह राम बसे हैं। अभी समय है राम की भक्ति करो, नहीं तो जब अंत समय आएगा तो पछताना पड़ेगा।
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
कबीर दास जी कहते हैं कि तिनके को पाँव के नीचे देखकर उसकी निंदा मत करिये क्यूंकि अगर हवा से उड़के तिनका आँखों में चला गया तो बहुत दर्द करता है। वैसे ही किसी कमजोर या गरीब व्यक्ति की निंदा नहीं करनी चाहिए।
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये,
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये
कबीर दास जी कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे उस समय सारी दुनिया खुश थी और हम रो रहे थे। जीवन में कुछ ऐसा काम करके जाओ कि जब हम मरें तो दुनियां रोये और हम हँसे।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ
जो लोग लगातार प्रयत्न करते हैं, मेहनत करते हैं वह कुछ ना कुछ पाने में जरूर सफल हो जाते हैं| जैसे कोई गोताखोर जब गहरे पानी में डुबकी लगाता है तो कुछ ना कुछ लेकर जरूर आता है लेकिन जो लोग डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रहे हैं उनको जीवन पर्यन्त कुछ नहीं मिलता
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत
इंसान की फितरत कुछ ऐसी है कि दूसरों के अंदर की बुराइयों को देखकर उनके दोषों पर हँसता है, व्यंग करता है लेकिन अपने दोषों पर कभी नजर नहीं जाती जिसका ना कोई आदि है न अंत
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार
कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य का जन्म मिलना बहुत दुर्लभ है यह शरीर बार बार नहीं मिलता जैसे पेड़ से झड़ा हुआ पत्ता वापस पेड़ पर नहीं लग सकता
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि
जो व्यक्ति अच्छी वाणी बोलता है वही जानता है कि वाणी अनमोल रत्न है| इसके लिए हृदय रूपी तराजू में शब्दों को तोलकर ही मुख से बाहर आने दें|
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना
हिन्दूयों के लिए राम प्यारा है और मुस्लिमों के लिए अल्लाह (रहमान) प्यारा है| दोनों राम रहीम के चक्कर में आपस में लड़ मिटते हैं लेकिन कोई सत्य को नहीं जान पाया|
कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और।
हरि रुठे गुरु ठौर है, गुरु रुठे नहीं ठौर॥
इस दोहे में गुरु की महिमा बताई गई है। कबीर के अनुसार इंसान अंधा है, उसे कुछ भी जानकारी नहीं है। सब कुछ गुरु ही बताता है। अगर कभी भगवान रुठ जाए तो गुरु भगवान को मनाने का उपाय बताता है। अगर गुरु ही रुठ जाए तो हमारी मदद कोई नहीं करता है।
हरि गुन गाबै हरशि के, हृदय कपट ना जाय
आपन तो समुझय नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय।
अपने हृदय के छल कपट को नहीं जान पाते हैं। खुद तो कुछ भी नहीं समझ
पाते है परन्तु दूसरों के समक्ष अपना ज्ञान बघारते है।
कबीर जीवन कुछ नहीं, खिन खारा खिन मीठ।
कलहि अलहजा मारिया, आज मसाना ठीठ।।
कबीरदास कहते है कि यह जीवन कुछ नहीं है, पल भर में खारा है और पल भर में मीठा है। जो वीर योद्धा कल युद्धभूमि में मार रहा था, वह आज वह शमशान में मरा पड़ा है।
ऐसा कोई  ना मिला , जासू कहूं निसंक
जासो हिरदा की कहूं, सो फिर मारे डंक।।
कबीरदास कहते है कि इस संसार में ऐसा कोई नहीं है जिससे हम अपने ह्रदय की बात बिना किसी भय के कह सके। जो कोई भी अपने ह्रदय की बात किसी से कहने का प्रयत्न भी करता है तो वह उसके ह्रदय की वेदना को गंभीरता से नहीं लेता है और उपहास के रूप में सर्प के समान डंक मारता है
निर्पक्षी की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान।
निरदुन्दी की मुक्ति है, निर्लोभी निर्बान।
कबीरदास कहते है कि जाति, वर्ण, सम्प्रदाय आदि के पक्षपात से रहित होकर ही भक्ति हो सकती है और सांसारिक माया मोह से मुक्त होने पर ही ज्ञान प्राप्त होता है। जो लोग मान-अपमान, सुख - दुःख, हर्ष - शोक तथा पाप - पुण्य से मुक्त होते हैं, उन्हीं की मुक्ति होती है। जो लोभ से रहित हो जाता है, वह बंधन मुक्त हो जाता है।
कहता हूं कहि जात हूं, कहूं बजाये ढोल।
श्वासा खाली जात है, तीन लोक का मोल।
कबीरदास कहते है कि मै कहता हूँ, और कहते हुये जाता हूँ और शोर मचाकर ढोल बजाकर कह रहा हूँ कि प्रभु के सुमिरन के बिना प्रत्येक श्वास व्यर्थ जा रही है। यह श्वास तीनो लोको में अनमोल है। इसलिये प्रत्येक श्वास के साथ प्रभु का सुमिरन करो।
कबीर माया रुखरी, दो फल की दातार।
खाबत खर्चत मुक्ति भय, संचत नरक दुआर।
कबीरदास कहते है कि माया ऐसे वृक्ष की तरह है जो दो प्रकार के फल देती है। यदि माया को अच्छे कार्यो में खर्च किया जावे तो मुक्ति प्राप्त होती है, परन्तु इसको संचय करने पर नरक की प्राप्ति होती है।
कबीर माया डाकिनी, सब काहु को खाये।
दांत उपारुन पापिनी, संनतो नियरे जाये।
कबीरदास कहते है कि माया डाकू के समान है जो सबको खा जाती है अर्थात सबकुछ नष्ट कर देती है। मायारुपी डाकू के दाँत उखाड़ दो और यह संतो की संगति से ही संभव है। संतो की संगत से ही माया से छुटकारा पाया जा सकता है।
दुनिया सेती दोसती, होय भजन में भंग।
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग।
कबीरदास कहते है कि दुनिया के लोगों के साथ मेल मिलाप तथा दोस्ती करने से भजन साधना में व्यवधान उत्पन्न होता है। अतः केवल राम का प्रेम से सुमिरन करना चाहिये या फिर साधु संतो की संगती करनी चाहिये। अतः ज्ञान आचरण चाहिये।
कबीर माया पापिनी, फंद ले बैठी हाट।
सब जग फन्दै पड़ा,गया कबीरा काट।
कबीरदास कहते है कि यह माया बहुत बड़ी पापिन है, जो इस संसार रूपी बाजार में सुन्दर भोग विलास की सामग्री लेकर अपने फंदे में फंसाने के लिए बैठी है जिसने सद्गुरु से ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, वह इसके फंदे में फंस जाते है और जिसने सद्गुरु के सुधामय ज्ञानोपदेश को ग्रहण किया, वह इसके बंधन को काटकर निकल गये
जहं आपात तहं आपदा, जहं संसय तहं सोग।
कह 'कबीर' कैसे मिटै, चारों दीरघ रोग।
कबीरदास कहते है कि अहंकार से विपत्ति आती है और संदेह से दुख होता है. अहंकार, आपत्ति, संशय और शोक ये चारों भयंकर रोग हैं, इनसे कैसे छुटकारा मिल सकता है?
मैं मैं बड़ी बलाय है, सको तो निकसो भागि।
कबे 'कबीर' कब लगि रहै, रुई लपेटी आगि।
कबीरदास कहते है कि अहंकार बहुत बुरी चीज़ है। अहंकार के जंजाल से यथाशीघ्र बाहर निकल आओ। जैसे रुई में जरा सी चिंगारी आग लगा देती है, उसी प्रकार अहंकार मनुष्य का सर्वनाश कर देता है
'कबीर' कहा गरबियां, ऊंचे देखि वास।
काल्हि परयूं वै लौटणां, ऊपरि जामै घास।
कबीरदास कहते है कि अभिमान करना व्यर्थ है। जो लोग ऊँचे-ऊँचे महलों में रहने का घमंड करते है, उन्हें भी जब मृत्यु होगी तो जमीन पर ही लेटना पड़ेगा और एक दिन उनकी कब्र पर घांस जम जायेगी। अर्थात इस संसार की सभी वस्तुएं नश्वर है, इसलिये उनका अभिमान व्यर्थ है
रुखा सूखा खाइकै, ठंडा पानी पीव।
देख विरानी चूपड़ी, मन ललचावै जीव।
ईश्वर ने जो कुछ भी दिया है, उसी में संतोष करना चाहिए। यदि ईश्वर ने रूखी सूखी दो रोटी दी है तो उसे ही ख़ुशी  खाकर ठंडा पानी पीकर सो जाना चाहिए। दुसरो की घी की चुपड़ी रोटी देखकर मन नहीं ललचाना चाहिए।
कबीर कुसंग न कीजिये, पाथर जल न तिराय।
कदली सीप भुजंग मुख, एक बूंद तीर आय।
कबीरदास कहते है कि कभी भी कुसंगति मत करो। जैसे पत्थर पर बैठकर नदी पार नहीं की जा सकती है, वैसे ही कुसंगति से भला नहीं हो सकता है। स्वाति नक्षत्र की बूंद केले में पड़ने से कपूर, सीपी में पड़ने से मोती और सर्प के मुंह में पड़ने से विष हो जाती है अर्थात संगति के अनुसार बूंद परिवर्तित हो जाती है।
छारि अठारह नाव पढ़ि छाव पढ़ी खोया मूल
कबीर मूल जाने बिना,ज्यों पंछी चनदूल।
जिसने चार वेद अठारह पुरान,नौ व्याकरण और छह धर्म शास्त्र पढ़ा हो उसने मूल तत्व खो दिया है। कबीर मतानुसार बिना मूल तत्व जाने वह केवल चण्डूल पक्षी की तरह मीठे मीठे बोलना जानता है। मूल तत्व तो परमात्मा है।
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई,
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।
कबीर के अनुसार, जिस प्रकार समुद्र में मोती बिखरे रहने के बावजूद बगुला उन्हें छूता तक नहीं और हंस उन्हें चुन-चुनकर खाता है। ठीक ऐसे ही यह हमारी योग्यता पर निर्भर करता है कि हम किसी व्यक्ति या वस्तु के महत्व को पहचानते हैं या नहीं।
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई,
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
कबीर दासजी कहते हैं कि जब तक किसी व्यक्ति की खूबियों के महत्व का पता नहीं होता तब तक हम उस व्यक्ति का सही आंकलन नहीं कर पाते। लेकिन जैसे ही उस व्यक्ति के गुणों की परख हो जाती है, एकाएक उसकी वैल्यू बढ़ जाती है। ऐसे में किसी को जज करने की कोशिश और जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।
ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पंडित कवि अनेक
राम रटा निद्री जिता, कोटि मघ्य ऐक।
ज्ञानी और ज्ञाता बहुतों मिले। पंडित और कवि भी अनेक मिले।
किंतु राम का प्रेमी और इन्द्रियजीत करोड़ों मे भी एक ही मिलते हैं।
भग भोगे भग उपजे,भग से बचे ना कोइ
कहे कबीर भग ते बचे भक्त कहाबै सोऐ।
भग भोग उत्पन्न करता है। इससे वचना अति कठिन है।
जो व्यक्ति इससे अपनी रक्षा करता है वस्तुतः वही भक्त हैं
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाही 
धन का भूखा जो फिरे, सो तो साधू नाही |
साधु भाव का भूखा होता है, धन का भूखा नहीं होता
जो धन की चिंता में धूमता है वह साधु नहीं है।
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥
व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना - जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म - मरण से पार होने के लिए साधना करता है |
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥
गुरु में और पारस - पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥
सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।
पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान॥
बड़े - बड़े विद्व।न शास्त्रों को पढ - गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नही मिलता। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती।
भेष देख मत भूलये, बुझि लीजिये ज्ञान |
बिना कसौटी होत नहिं, कंचन की पहिचान ||
केवल उत्तम साधु वेष देखकर मत भूल जाओ, उनसे ज्ञान की बातें पूछो! बिना कसौटी के सोने की पहचान नहीं होती |
माँगन गै सो मर रहै, मरै जु माँगन जाहिं |
तिनते पहिले वे मरे, होत करत हैं नहिं ||
जो किसी के यहाँ मांगने गया, जानो वह मर गया | उससे पहले वो मरगया जिसने होते हुए मना कर दिया |
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध |
कबीर संगत साधु की, कटै कोटि अपराध ||
एक पल आधा पल या आधे का भी आधा पल ही संतों की संगत करने से मन के करोडों दोष मिट जाते हैं |
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत |
सत्यवान परमारथी, आदर भाव सहेत ||
ज्ञान से पूर्ण, अभिमान से रहित, सबसे हिल मिलकर रहने वाले, सत्येनिष्ठ परमार्थ - प्रेमी एवं प्रेमरहित सबका आदर - भाव करने वाले |
कबीर रस्सी पाँव में, कहँ सोवै सुख चैन |
साँस नगारा कुंच का, है कोइ राखै फेरी ||
अपने शासनकाल में ढोल, नगाडा, ताश, शहनाई तथा भेरी भले बजवा लो | अन्त में यहाँ से अवश्य चलना पड़ेगा, क्या कोई घुमाकर रखने वाला है |
रात गँवाई सोयेकर, दिवस गँवाये खाये |
हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाय ||
मनुष्य ने रात गवाई सो कर और दिन गवाया खा कर, हीरे से भी अनमोल मनुष्य योनी थी परन्तु विषयरुपी कौड़ी के बदले में जा रहा है |
कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर |
तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यूँ अँधियारे चोर ||
ऐ मनुष्य ! क्यों असावधानी में भटकते और मोर की घनघोर निद्रा में सोते हो ? तेरे सिराहने मृत्यु उसी प्रकार खड़ी है जैसे अँधेरी रात में चोर |
धर्म किये धन ना घटे, नदी ना घट्टै नीर |
अपनी आँखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर ||
धर्म (परोपकार, दान, सेवा) करने से धन नहीं घटता, देखो नदी सदैव रहती है, परन्तु उसका जल घटता नहीं | धर्म करके स्वय देख लो |
स्वारथ का सब कोई सगा, सारा ही जग जान |
बिन स्वारथ आदर करे, सो नर चतुर सुजान ||
स्वार्थ के ही सब मित्र हैं, सरे संसार की येही दशा समझलो| बिना स्वार्थ के जो आदर करता है, वही मनुष्य विचारवान - बुद्धिमान है |
सुख के संगी स्वारथी, दुःख में रहते दूर |
कहैं कबीर परमारथी, दुःख - सुख सदा हजूर ||
संसारी - स्वार्थी लोग सिर्फ सुख के संगी होते हैं, वे दुःख आने पर दूर हो जाते हैं| परन्तु परमार्थी लोग सुख - दुःख सब समय साथ देते हैं|
कबीर मन तो एक है, भावै तहाँ लगाव |
भावै गुरु की भक्ति करू, भावै विषय कमाव ||
गुरु कबीर जी कहते हैं कि मन तो एक ही है, जहाँ अच्छा लगे वहाँ लगाओ| चाहे गुरु की भक्ति करो, चाहे विषय विकार कमाओ|
मन के मते न चलिये, मन के मते अनेक |
जो मन पर असवार है, सो साधु कोई एक ||
मन के मत में न चलो, क्योंकि मन के अनेको मत हैं| जो मन को सदैव अपने अधीन रखता है, वह साधु कोई विरला ही होता है|
मनुवा तो पंछी भया, उड़ि के चला अकास |
ऊपर ही ते गिरि पड़ा, मन माया के पास ||
यह मन तो पक्षी होकर भावना रुपी आकाश में उड़ चला, ऊपर पहुँच जाने पर भी यह मन, पुनः नीचे आकर माया के निकट गिर पड़ा|
मन पंछी तब लग उड़ै, विषय वासना माहिं |
ज्ञान बाज के झपट में, तब लगि आवै नाहिं ||
यह मन रुपी पक्षी विषय - वासनाओं में तभी तक उड़ता है, जब तक ज्ञानरूपी बाज के चंगुल में नहीं आता; अर्थार्त ज्ञान प्राप्त हों जाने पर मन विषयों की तरफ नहीं जाता|
अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप |
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप ||
बहुत बरसना भी ठीक नहीं होता है, और बहुत धूप होना भी लाभकर नहीं| इसी प्रकार बहुत बोलना अच्छा नहीं, बिलकुल चुप रहना भी अच्छा नहीं|
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।

Wednesday, 8 April 2020

HANUMAN JAYANTI 2020 SPECIAL



Hanuman Jayanti Special
श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भाव भय दारुणम् ।
नवकंज लोचन, कंज मुख, कर कंज, पद कन्जारुणम ॥1
कंदर्प अगणित अमित छवी नव नील नीरज सुन्दरम ।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमी जनक सुतावरम् ॥2
भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम् ।
रघुनंद आनंदकंद कौशलचंद दशरथ नन्दनम ॥3
सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारू उदारु अंग विभुषणं ।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर-धुषणं ॥4
इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनम् ।
मम् हृदय कुंज निवास कुरु कामादी खल दल गंजनम् ॥5
मनु जाहिं राचेऊ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सांवरों ।
करुना निधान सुजान सिलु सनेहु जानत रावरो ॥6
एही भांती गौरी असीस सुनि सिय सहित हिय हरषी अली ।
तुलसी भवानी पूजि पूनि पूनि मुदित मन मंदिर चली ॥7
दोहा- जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥




Hanuman Jayanti is the celebration of the auspicious appearance day of Sri Hanuman, an ardent devotee and eternal servitor of Lord Sri Ram.
Father: Kesari
Mother: Anjana
Hanuman's childhood name: Maruti

Facts about Hanuman:

Hanuman is known as the 11th incarnation of Lord Shiva, whose purpose of advent on earth was in the Treta-yuga to serve Lord Shree Ramchandra.

Later in Dwaparyug, He served Lord Shree Krishna during the Mahabharat by resting on Arjun's chariot and protecting it from destruction.

He is a bachelor and is worshipped in all the temples of India. Every temple of Sri Rama contains an icon of Hanuman. Worship of Sri Rama is complete only with the worship of Hanuman.

In Kalyug during Lord Swaminarayan's time, He served Him both during childhood and forest adventures (Van Vicharan).

Hanumanji is one amongst the eight Immortals (Chiranjivi) as mentioned in the Bhaktchintamani in a conversation between Dharmadev and Bhakti Mata. Until the start of the next Satyug, He is present in divine form ever engaged in the service of the Lord and also protecting His devotees.

In various Vachanamrut, Lord Swaminarayan praises Hanuman for His staunch and chaste devotion.

Worship of Lord Hanuman symbolizes in our individual life “The Pursuit of Excellence”.

When asked by Ram, "Who are you, a monkey or a man?" Hanuman bowed his head reverently, folded his hands and said, "When I do not know who I am, I serve You, and when I do know who I am, I am you." What did Hanuman mean in this quote?

My answer with the original verse:
देह दृष्टया तू दासो अहम्, जीव दृष्ट्या त्वदंशकम्।
तत्त्व दृष्ट्या त्वमेवाह्म्, इति में निश्चिता मति:।।

Here when Bhagwan asks Mahatma Hanuman ji, that “Who are you”. One of the best among the intellectuals Hanuman ji replied the above verse which means “If we look from the perspective of this mortal body, I am your Sevak/Servant (दास). If we look at the perspective of Ataman, I am your ‘ansh’ as Goswami ji also says
ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशी।
Further Hanuman ji say, if we look from the perspective of eternal truth (तत्त्व), I am you. Because whatever is out there is all you, nothing else and this is very clear to me.
Now, here comes the proof of calling Hanuman ji as ज्ञानिनां अग्रगण्यं (Foremost among intellectuals). In Sanatana dharma, ultimate goal is to reach the level which Bhagwan Hanuman ji mentioned in the last. One first recognizes himself as this body (this is called “Agyan”), but when he continues on the path of “sadhana”, he gets the inner self of him and realize that he is something different from the body and encounter the Ataman. To know yourself is called “Gyan” in the adhyatm. But this is not the ultimate destination, if one still continues, he gets to know that there is nothing else then the “Paramatma” i.e. वासुदेवः सर्वम् and this is called “Param Gyan or Vigyan or Satya”. Bhagwan Hanuman ji knows this eternal truth, hence called as ज्ञानिनां अग्रगण्यं” (Foremost among intellectuals).
So now come to the question - Hanuman ji said, if I don't know who I am (that is ‘Agyaan’, means they are talking about body here), I am your servant. But if I do know who I am (here they are talking about “Gyan” or “Param Gyan”), I am you.
Let wisdom rule our thoughts,
Hanuman Ji breaks the sorrows of those who seek His help. Even from the satellites there was seen the presence of strange energy in Lord Rama’s village. So, it is clear that Lord Hanuman is very active and daring God in this Kalyug. And has the audacity to fight evil and appear in front of his devotees in open. As Kalyug has influenced over other God so they can’t appear front of their devotees even if they want. He is the Pure soul. He is the divine. He is Lord Shiva.
Chanting Hanuman Chalisa-Reading Ramayana-Worshiping Lord Rama is the best way to attain Lord Hanuman.


May our power be put to good use.
Happy Hanuman Jayanti
ॐ आञ्जनेयाय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि । तन्नो हनुमत् प्रचोदयात् ॥

Thursday, 2 April 2020

HAND MUDRAS FOR RESPIRATORY TRACT MALADIES

1. Panch shakti mudra

The five fingers of the hands contain five elements. Different types of energy exist in these five elements. If the energy of any one of these elements becomes unbalanced. So, the body becomes sick with it. Their energy is awakened by Panch Shakti Mudra. Also, the imbalanced element is balanced so that your body can become disease free. Like Panch shakti Mudra, stone therapy also attempts to balance undetermined five elements. So that you remain healthy.


Benefits of Panch shakti mudra
Panch Shakti mudra has many benefits. With its regular practice, problems related to lung diseases, respiratory diseases, colds, mucus, colds, joint pain etc. are removed. That is why practice it daily and you remain healthy disease free.
2. Shakti mudra (Gesture of Power)
Shakti mudra (or shakti Chalan mudra), as the name suggests, is practiced to enhance the shakti or inner strength in you. This hasta mudra is associated with immunity, stress, mental and physical stability.
METHOD:
Join little fingers and the ring fingers of both hands.
Bend the thumb over the palm.
Fold the middle finger and the index finger loosely over the thumb.
This should be done in both the hands.

Shakti Mudra Benefits:

Ø  The biggest benefit is curing Insomnia.
Ø  It helps to strengthen the immunity power of our body.]
Ø  This mudra strengthens the organs near the pelvic area.
Ø  Regular practice of this mudra enhances the power of Svadhisthana (Sacral) chakra.
Ø  Fights psychological stress and relaxes the body.
Ø  Helps in intestinal cramps.
Ø  Helps in menstrual disorders.
 3. Linga Mudra
For respiratory maladies especially with increased phlegm and secretions, this mudra comes as help. It is particularly recommended for asthmatic patients and also for those who have increased ‘Kapha’ in their body system. All you need to do is to clasp the fingers of both hands together and keep one thumb upright.
METHOD:
Linga mudra is formed by interlocking the palm but keeping the left thumb erect pointing upward. This mudra can be done by reversing the hand too.

Benefits of Linga Mudra (Mudra of Heat)
It is believed Mudra of heat has a lot of spiritual, mental, and emotional benefits.
Ø The mudra builds heat and energy and increases the fire element.
Ø Ling Mudra is practiced to increase heat in the body.
Ø You can reduce obesity by removing unnecessary calories of your body by using Linga mudra.
Ø The use of Linga mudra is beneficial in the case of excessive cold feeling or cold obstruction in the body.
Ø This mudra protects one’s celibacy.
Ø By regularizing this mudra, diseases of cold, cold, sinusitis, asthma and low blood pressure are destroyed.
Ø It strengthens the immune system also.
Ø By doing this mudra with Surya mudra, the flow of the menstrual cycle can be controlled.

4. Matangi Mudra

The Solar Plexus is located just above our belly, near the diaphragm. Its main function is to strengthen the mental ability and bring clarity of mind. As the quality of sleep is directly related to the calmness and clarity of mind, it must be quite clear to you why strengthening of this chakra is important for a sound sleep.

Join your palms in a Namaste mudra. Then clasp the fingers of both the hands against each other, resting the tips on the back of the palm. keep the middle fingers raised, the middle fingers must touch each other pointing upwards. Place the hands in this position near your solar plexus for 4 to 5 minutes.
 Matangi Mudra Benefits:

Ø  Helps in the restless leg syndrome.
Ø  Strengthens the solar plexus, hence mitigates the problems arising from the imbalance of this chakra.
Ø  Brings peace of mind and reduces tension and anxiety.
Ø  Relieves pain in the abdomen area.
Ø  Helps the digestive organs.

5. 5. Chandrakala Mudra (for detoxifying Lungs and large Intestine)

Chandrakala Mudra is a mudra used in Indian dance forms. The mudra, additionally, has several health benefits. Holding this mudra for 10 to 15 minutes either in morning or evening relieves lungs and large intestine of accumulated debris, which is in form of cough in the lungs and undigested (fermenting) food in the large intestine. It is very helpful for people suffering from Asthma and chronic Constipation.



METHOD:
To do Chandrakala mudra, you have to extend index finger and thumb as indicated.  The thumb and index finger will be perpendicular to each other. The other fingers will fold into the palm.


Find More Self - healing techniques in e-book
SELF - HEALING REGIMEN ....from illness to wellness



AVAILABLE AT AMAZON & KINDLE