जीवन परिचय : रहीम दास का जन्म 17 दिसंबर 1556 में हुआ था । उनका का पूरा
नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था। इनके पिता बैरम खां सम्राट अकबर के संरक्षक थे।
रहीमदास जी की माता का नाम सुल्तान बेग़म था। वे सम्राट अकबर के दरबार में नवरत्नो
में से एक थे। उनकी मुख्य रचनायें ‘रहीम दोहावली’ ,:बरवै’ ,’नायिका भेद’ ,’मदनाष्टक’ ,’रास पंचाध्यायी’ और ‘नगर शोभा’ आदि है । उन्होने तुर्की भाषा
में लिखी बाबर की आत्मकथा ‘ तुजके बाबरी’ का फ़ारसी में अंनुवाद किया । रहीमदास जी की मृत्यु
1627 ईस्वी आगरा में हुयी थी । रहीम का व्यक्तित्व
बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न था। वे एक ही साथ सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, कवि एवं विद्वान थे। रहीम के दोहे में शब्दों की मात्रा बहुत ही कम है लेकिन इसका मर्म, महत्व और जीवन का सार अनंत है ।
अर्थ - कुछ दिन रहने वाली विपदा अच्छी होती है। क्योंकि इसी
दौरान यह पता चलता है कि दुनिया में कौन हमारा हित या अनहित सोचता है।
अर्थ - जब बुरे दिन आए हों तो चुप
ही बैठना चाहिए, क्योंकि जब अच्छे दिन आते हैं तब बात बनते देर नहीं
लगती।
अर्थ - प्रेम रूपी धागा जब एक बार टूट जाता है, तो दोबारा पहले की तरह
जोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है । अगर उसे जोड़ भी दिया जाये तो उसमे गांठ पड़ जाती
है। प्रेम का रिश्ता बहुत ही नाज़ुक होता है। बिना सोचे समझे इसे तोड़ना उचित नहीं
होता है। टूटे हुए रिश्ते फिर से जोड़ने पर संदेह हमेशा रह जाता है।
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग ।।
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग ।।
अर्थ - रहीमदास जी कहते हैं कि
जो अच्छे स्वभाव के मनुष्य होते हैं,उनको बुरी संगति भी बिगाड़ नहीं पाती। जिस प्रकार जहरीले सांप
सुगंधित चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं डाल
पाते।
अर्थ - यदि आपका प्रिय (सज्जन
व्यक्ति) सौ बार भी रूठे, तो भी रूठे हुए प्रिय
को मनाना चाहिए । यदि मोतियों की माला टूट जाए तो उन मोतियों को बार बार
धागे में पिरो लेना चाहिए। क्योकि मोतियों की माला हमेशा सभी के मन को भाती है ।
जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह ।
धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह ।।
जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह ।
धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह ।।
अर्थ - रहीमदास जी कहते हैं कि जैसे इस धरती पर सर्दी, गर्मी और बारिश होती है । यह सब
पृथ्वी सहन करती है । उसी तरह मनुष्य के शरीर को भी सुख और दुख उठाना और सहना
सीखना चाहिए
खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चाहिए यही सजाय।।
रहिमन करुए मुखन को, चाहिए यही सजाय।।
अर्थ - खीरे का कड़ुवापन दूर करने के लिए उसके ऊपरी सिरे को काटने के
बाद नमक लगा कर घिसा जाता है। कड़ुवे मुंह वाले के लिए कटु वचन बोलने वाले के लिए
यही सजा उचित है ।
अर्थ - कौआ और कोयल रंग में एक
समान होते हैं। जब तक ये बोलते नहीं तब तक इनकी पहचान नहीं हो पाती। लेकिन जब वसंत
ऋतु आती है, तो कोयल की मधुर आवाज़
से दोनों का अंतर स्पष्ट हो जाता है ।
रहिमन अंसुवा नयन ढरि, जिय दुःख प्रगट करेइ।
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ।।
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ।।
अर्थ - आंसू नयनों से बहकर मन
का दुःख प्रकट कर देते हैं। सत्य ही है कि जिसे घर से निकाला जाएगा वह घर का भेद
दूसरों से बता ही देता है ।
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग ।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग ।।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग ।।
अर्थ - रहीम दास जी कहते है कि धन्य है वो लोग ,जिनका जीवन सदा परोपकार के लिए बीतता
है, जिस तरह फूल बेचने वाले
के हाथों में खुशबू रह जाती है । ठीक उसी प्रकार परोपकारियों का जीवन भी खुश्बू से
महकता रहता है ।
मन मोटी अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय ।
फट जाये तो न मिले, कोटिन करो उपाय ।।
फट जाये तो न मिले, कोटिन करो उपाय ।।
अर्थ - रस, फूल, दूध, मन और मोती जब तक स्वाभाविक सामान्य
रूप में है ,तब तक अच्छे लगते है । लेकिन यह एक बार टूट-फट
जाए तो कितनी भी युक्तियां कर लो वो फिर से अपने स्वाभाविक और सामान्य रूप में
नहीं आते ।
अर्थ - रहीमदास कहते हैं कि
मनुष्य को बुद्धिमानी से व्यवहार करना चाहिए । क्योंकि अगर किसी कारण से कुछ गलत
हो जाता है, तो इसे सही करना
मुश्किल होता है, क्योंकि एक बार दूध
खराब हो जाये, तो हजार कोशिश कर ले
उसमे से न तो मक्खन बनता है और न ही दूध ।
रहिमन मनहि लगाईं कै, देख लेहूँ किन कोय ।
नर को बस करिबो कहा, नारायण बस होय ।।
नर को बस करिबो कहा, नारायण बस होय ।।
अर्थ - रहीमदास जी कहते हैं कि यदि आप अपने मन को एकाग्रचित रखकर काम
करेंगे, तो आप अवश्य ही सफलता
प्राप्त कर लेंगे। उसी प्रकार मनुष्य भी एक मन से ईश्वर को चाहे तो वह ईश्वर को भी
अपने वश में कर सकता है ।
अर्थ - इस दोहे में रहीम दास जी ने मछली के जल के प्रति घनिष्ट प्रेम
को बताया है। मछली पकड़ने के लिए जब जाल पानी में डाला जाता है तो जाल पानी से बाहर
खींचते ही जल उसी समय जाल से निकल जाता है। परन्तु मछली जल को छोड़ नहीं पाती । वह
पानी से अलग होते ही मर जाती है।
अर्थ - जिस प्रकार पेड़ अपने फल को कभी नहीं खाते हैं, तालाब अपने अन्दर जमा किये हुए पानी
को कभी नहीं पीता है। उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति भी अपना इकट्ठा किये हुए धन से दूसरों
का भला करते हैं।
अर्थ - जिस प्रकार क्वार के
महीने में आकाश में घने बादल दीखते हैं पर बिना बारिश किये वो बस खाली गड़गड़ाने की
आवाज़ करते हैं । उस प्रकार जब कोई
अमीर व्यक्ति गरीब हो जाता है ,तो उसके मुख से बस अपनी पिछली बड़ी-बड़ी बातें ही सुनाई
पड़ती हैं, जिनका कोई मूल्य नहीं
होता।
अर्थ - रहीमदास जी इस दोहे में हमें अपने मन के दुख को अपने मन में
ही रखना चाहिए । क्योंकि दुनिया में कोई भी आपके
दुख को बांटने वाला नहीं है। इस संसार में बस लोग दूसरों के दुख को जान कर उसका
मजाक उड़ाना जानते हैं ।
अर्थ - इस दोहे में दो अर्थ
दृष्टिगत है ,जिस प्रकार किसी पौधे
के जड़ में पानी देने से वह अपने हर भाग तक पानी पहुंचा देता है । उसी प्रकार
मनुष्य को भी एक ही भगवान की पूजा-आराधना करनी चाहिए । ऐसा करने से ही उस मनुष्य
के सभी मनोरथ पूर्ण होंगे। दूसरा अर्थ यह है कि जिस प्रकार पौधे को जड़ से सींचने
से ही फल फूल मिलते हैं । उसी प्रकार मनुष्य को भी एक ही समय में एक कार्य करना
चाहिए । तभी उसके सभी कार्य सही
तरीके से सफल हो पाएंगे।
अर्थ - रहीम दास जी इस दोहे में कीचड़ का पानी बहुत ही धन्य है
।क्योंकि उसका पानी पीकर छोटे-मोटे कीड़े मकोड़े भी अपनी प्यास बुझाते हैं । परन्तु
समुद्र में इतना जल का विशाल भंडार होने के पर भी क्या लाभ ? जिसके पानी से प्यास नहीं बुझ सकती
है। यहाँ रहीम जी कुछ ऐसी तुलना कर रहे हैं ,जहाँ ऐसा व्यक्ति जो गरीब होने पर भी लोगों की मदद करता है ।
परन्तु एक ऐसा भी व्यक्ति , जिसके पास सब कुछ होने
पर भी वह किसी की भी मदद नहीं करता है ।अर्थात परोपकारी व्यक्ति ही महान होता है।
बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय ।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥
अर्थ - रहीमदास जी इस दोहे में
कहते हैं जिस प्रकार फटे हुए दूध को मथने से मक्खन नहीं निकलता है । उसी प्रकार
प्रकार अगर कोई बात बिगड़ जाती है तो वह दोबारा नहीं बनती।
अर्थ - रहीमदास जी ने इस दोहे
में बहुत ही अनमोल बात कही है। जिस जगह सुई से काम हो जाये वहां तलवार का कोई काम
नहीं होता है। हमें समझना चाहिए कि हर बड़ी और छोटी वस्तुओं का अपना महत्व अपने
जगहों पर होता है । बड़ों की तुलना में छोटो की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय ।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय॥
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय॥
अर्थ - रहीमदास जी इस दोहे में
बहुत ही महत्वपूर्ण बात कह रहे है। जिस प्रकार बिना पानी के कमल के फूल को सूखने
से कोई नहीं बचा सकता ।उसी प्रक्रार मुश्किल पड़ने पर स्वयं की संपत्ति ना होने पर
कोई भी आपकी मदद नहीं कर सकता है। रहीम जी इस दोहे के माध्यम से संसार के लोगों को
समझाना चाहते हैं की मनुष्य को अपनी संपत्ति का संचय करना चाहिए, ताकि मुसीबत में वह काम आये।
अर्थ - रहीम जी कहते हैं इस
संसार में पानी के बिना सब कुछ बेकार है ।इसलिए पानी को हमें बचाए रखना चाहिए।
पानी के बिना सब कुछ व्यर्थ है चाहे वह मनुष्य, जीव-जंतु हों या कोई वस्तु। ‘मोती’ के
विषय में बताते हुए रहीम जी कहते हैं पानी के बिना मोती की चमक का कोई मूल्य नहीं
है। ‘मानुष’ के सन्दर्भ में पानी का अर्थ मान-सम्मान या प्रतिष्ठा को बताते हुए
उन्होंने कहा है जिस मनुष्य का सम्मान समाप्त हो जाये उसका जीवन व्यर्थ है।
अर्थ - रहीमदास जी कहते है जिस प्रकार कोई कीड़ा अगर लात मारता है तो
कोई फर्क नहीं पड़ता है । उसी प्रकार छोटे यदि गलतियाँ करें तो उससे किसी को कोई
हानि नही पहुँचती है । अतः बड़ों को उनकी गलतियों को माफ़ कर देना चाहिये ।
रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली न प्रीत ।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँती विपरीत ।।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँती विपरीत ।।
अर्थ - गिरे हुए लोगों से न तो
दोस्ती अच्छी होती हैं, और न तो दुश्मनी. जैसे
कुत्ता चाहे काटे या चाटे दोनों ही अच्छा नहीं होता।
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन ।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछे कौन ।।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछे कौन ।।
अर्थ - वर्षा ऋतु को देखकर
कोयल और रहीम के मन ने मौन साध लिया है ।अब तो मेंढक ही बोलने वाले हैं। हमारी तो
कोई बात ही नहीं पूछता । अभिप्राय यह है कि कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गुणवान को चुप
रह जाना पड़ता है. उनका कोई आदर नहीं करता और गुणहीन वाचाल व्यक्तियों का ही
बोलबाला हो जाता है ।
“रहिमन’
वहां न जाइये, जहां कपट को हेत|
हम तो ढारत
ढेकुली, सींचत अपनो खेत|”
अर्थ - ऐसी जगह कभी नहीं जाना चाहिए, जहां छल-कपट से कोई अपना मतलब निकालना चाहे। हम तो बड़ी मेहनत से पानी खींचते हैं कुएं से ढेंकुली द्वारा, और कपटी आदमी बिना मेहनत के ही अपना खेत सींच लेते हैं।
अर्थ - ऐसी जगह कभी नहीं जाना चाहिए, जहां छल-कपट से कोई अपना मतलब निकालना चाहे। हम तो बड़ी मेहनत से पानी खींचते हैं कुएं से ढेंकुली द्वारा, और कपटी आदमी बिना मेहनत के ही अपना खेत सींच लेते हैं।
“जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं|
अर्थ - रहीम अपने दोहें में
कहते हैं की किसी भी बड़े को छोटा कहने से बड़े का बड़प्पन कम नहीं होता, क्योकी गिरिधर को कान्हा कहने से उनकी
महिमा में कमी नहीं होती |
“वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग|
बाँटन
वारे को लगे, ज्यो मेहंदी को रंग |”
अर्थ - रहीमदास जी ने कहा की वे लोग धन्य हैं, जिनका शरीर हमेशा सबका उपकार करता हैं
| जिस प्रकार मेहंदी
बाटने वाले पर के शरीर पर भी उसका रंग लग जाता हैं उसी तरह परोपकारी का शरीर भी
सुशोभित रहता हैं |
“खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान.
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान |”
अर्थ - सारा संसार जानता हैं की खैरियत, खून, खाँसी, ख़ुशी, दुश्मनी, प्रेम और शराब का नशा छुपाने से नहीं
छुपता हैं |
“जो रहीम ओछो बढै, तौ अति ही इतराय|
प्यादे
सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ों जाय |”
अर्थ - लोग जब प्रगति करते हैं तो बहुत इतराते हैं. वैसे ही जैसे
शतरंज के खेल में ज्यादा फ़र्जी बन जाता हैं तो वह टेढ़ी चाल चलने लता हैं |
जिनको
कुछ नहीं चाहिये, वे साहन के साह |”
अर्थ - जिन लोगों को कुछ नहीं चाहिये वों लोग राजाओं के राजा हैं, क्योकी उन्हें ना तो किसी चीज की चाह
हैं, ना ही चिन्ता और मन तो
पूरा बेपरवाह हैं |
“जे गरिब पर हित करैं, हे रहीम बड|
कहा
सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग |”
अर्थ - जो लोग गरिब का हित करते हैं वो बड़े लोग होते हैं. जैसे सुदामा
कहते हैं कृष्ण की दोस्ती भी एक साधना हैं |
“मन मोटी अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय|
फट
जाये तो न मिले, कोटिन करो उपाय |”
अर्थ - मन, मोती, फूल, दूध और रस जब तक सहज और सामान्य रहते
हैं तो अच्छे लगते हैं लेकिन अगर एक बार वो फट जाएं तो कितने भी उपाय कर लो वो फिर
से सहज और सामान्य रूप में नहीं आते |
रहिमन अंसुवा
नयन ढरि, जिय दुःख प्रगट करेइ,
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ.
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ.
अर्थ - रहीम कहते हैं की आंसू नयनों से बहकर मन का दुःख प्रकट कर
देते हैं। सत्य ही है कि जिसे घर से निकाला जाएगा वह घर का भेद दूसरों से कह ही
देगा.
समय पाय
फल होत है, समय पाय झरी जात.
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछितात.
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछितात.
अर्थ - रहीम कहते हैं कि उपयुक्त समय आने पर वृक्ष में फल लगता है।
झड़ने का समय आने पर वह झड़ जाता है. सदा किसी की अवस्था एक जैसी नहीं रहती, इसलिए दुःख के समय पछताना व्यर्थ है.
ओछे को
सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों.
तातो जारै अंग सीरै पै कारौ लगै.
तातो जारै अंग सीरै पै कारौ लगै.
अर्थ - ओछे मनुष्य का साथ छोड़
देना चाहिए. हर अवस्था में उससे हानि होती है – जैसे अंगार जब तक गर्म रहता है तब
तक शरीर को जलाता है और जब ठंडा कोयला हो जाता है तब भी शरीर को काला ही करता है.
वृक्ष कबहूँ
नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर !
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर !
अर्थ - वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते, नदी जल को कभी अपने लिए संचित नहीं
करती, उसी प्रकार सज्जन
परोपकार के लिए देह धारण करते हैं !
लोहे की
न लोहार की, रहिमन कही विचार जा
हनि मारे सीस पै, ताही की तलवार !
हनि मारे सीस पै, ताही की तलवार !
अर्थ - रहीम विचार करके कहते हैं कि तलवार न तो लोहे की कही जाएगी न
लोहार की, तलवार उस वीर की कही
जाएगी जो वीरता से शत्रु के सर पर मार कर उसके प्राणों का अंत कर देता है.
तासों ही
कछु पाइए, कीजे जाकी आस
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास !
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास !
अर्थ - जिससे कुछ पा सकें, उससे ही किसी वस्तु की आशा करना उचित
है, क्योंकि पानी से रिक्त
तालाब से प्यास बुझाने की आशा करना व्यर्थ है.
माह मास
लहि टेसुआ मीन
परे थल और
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपुने ठौर !
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपुने ठौर !
अर्थ - माघ मास आने पर टेसू का वृक्ष और पानी से बाहर पृथ्वी
पर आ पड़ी मछली की दशा बदल जाती है. इसी प्रकार संसार में अपने स्थान से छूट जाने
पर संसार की अन्य वस्तुओं
की दशा भी बदल जाती है. मछली जल से बाहर आकर मर जाती है वैसे ही संसार की अन्य
वस्तुओं की भी हालत होती है.
रहिमन नीर
पखान, बूड़े पै सीझै नहीं
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं !
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं !
अर्थ - जिस प्रकार जल में पड़ा
होने पर भी पत्थर नरम नहीं होता
उसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति की अवस्था होती है ज्ञान दिए जाने पर भी उसकी समझ में
कुछ नहीं आता.
अर्थ - रहीम कहते हैं कि
निर्धन होकर बंधु-बांधवों के बीच रहना उचित नहीं है इससे अच्छा तो यह है कि वन मैं
जाकर रहें और फलों का भोजन करें.
अर्थ - रहीम कहते हैं कि यदि
होनहार अपने ही हाथ में होती, यदि जो होना है उस पर हमारा
बस होता तो ऐसा क्यों होता कि राम हिरन के पीछे गए और सीता का हरण हुआ. क्योंकि
होनी को होना था – उस पर हमारा बस न था इसलिए तो राम स्वर्ण मृग के पीछे गए और सीता को रावण हर कर लंका ले गया.
रहिमन रीति
सराहिए, जो घट गुन सम होय
भीति आप पै डारि के, सबै पियावै तोय !
भीति आप पै डारि के, सबै पियावै तोय !
अर्थ - रहीम कहते हैं कि उस
व्यवहार की सराहणा की जानी चाहिए जो घड़े और रस्सी के व्यवहार के समान हो घडा और
रस्सी स्वयं जोखिम उठा कर दूसरों को जल पिलाते हैं जब घडा कुँए में जाता है तो
रस्सी के टूटने और घड़े के टूटने का खतरा तो रहता ही है.
अर्थ - रहीम कहते हैं कि अपने
हाथ में तो केवल कर्म करना ही होता है सिद्धि तो भाग्य से ही मिलती है जैसे चौपड़
खेलते समय पांसे तो अपने हाथ में रहते हैं पर दांव क्या आएगा यह अपने हाथ में नहीं
होता.